धूमा — कलचुरी गार्डन धूमा में 24 दिसंबर से पंडित पवन पाठक जी महाराज के मुखारविंद से चल रही शिव पुराण कथा में भोले बाबा की बारात बड़े ही धूमधाम से बैंड बाजे के साथ निकाली गई और माता पार्वती के साथ शिव विवाह को संपन्न करते हुए भक्तों ने पूजन अर्चन किया ।
शिव- पार्वती की झाँकी पूरे दिवस के कार्यक्रम में विशेष आकर्षण का केन्द्र रही।
शकुंतला अग्रवाल और समस्त परिजनों के सौजन्य से हो रही शिव महापुराण कथा में चौथे दिन शिव-विवाह संवाद का वर्णन गया जिसको सुनने के लिए ग्राम और क्षेत्र के हजारों भक्तों ने पंडाल में पहुंचकर कथा का रसपान किया।

शिव पुराण और शिव महापुराण में शिव महापुराण में क्या अंतर
दोनो मे कुछ अंतर नहीं बस संक्षिप्त और बृहद वर्णन का अंतर है।शिव पुराण संक्षिप्त में है। शिव महापुराण को बहुत बृहद में भगवन् शिव के सभी रूपों , जन्म मृत्यु, संघार, का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है।
शिव पुराण’ में प्रमुख रूप से शिव-भक्ति और शिव-महिमा का विस्तार से वर्णन है। लगभग सभी पुराणों में शिव को त्याग, तपस्या, वात्सल्य तथा करुणा की मूर्ति बताया गया है। शिव सहज ही प्रसन्न हो जाने वाले एवं मनोवांछित फल देने वाले हैं। ‘शिव पुराण’ में शिव के जीवन चरित्र पर प्रकाश डालते हुए उनके रहन-सहन, विवाह और उनके पुत्रों की उत्पत्ति के विषय में विशेष रूप से वर्णन है।
भगवान शिव सदैव लोकोपकारी और हितकारी हैं। त्रिदेवों में इन्हें संहार का देवता भी माना गया है। शिवोपासना को अत्यन्त सरल माना गया है। अन्य देवताओं की भांति भगवान शिव को सुगंधित पुष्पमालाओं और मीठे पकवानों की आवश्यकता नहीं पड़ती।
शिव तो स्वच्छ जल, बिल्व पत्र, कंटीले और न खाए जाने वाले पौधों के फल धूतरा आदि से ही प्रसन्न हो जाते हैं। शिव को मनोरम वेशभूषा और अलंकारों की आवश्यकता भी नहीं है। वे तो औघड़ बाबा हैं। जटाजूट धारी, गले में लिपटे नाग और रुद्राक्ष की मालाएं, शरीर पर बाघम्बर, चिता की भस्म लगाए एवं हाथ में त्रिशूल पकड़े हुए वे सारे विश्व को अपनी पद्चाप तथा डमरू की कर्णभेदी ध्वनि से नचाते रहते हैं।
इसीलिए उन्हें नटराज की संज्ञा भी दी गई है। उनकी वेशभूषा से ‘जीवन’ और ‘मृत्यु’ का बोध होता है। शीश पर गंगा और चन्द्र जीवन एवं कला के प्रतीक हैं। शरीर पर चिता की भस्म मृत्यु की प्रतीक है। यह जीवन गंगा की धारा की भांति चलते हुए अन्त में मृत्यु सागर में लीन हो जाता है।
‘रामचरितमानस’ में शिव
‘रामचरितमानस’ में तुलसीदास ने जिन्हें ‘अशिव वेषधारी’ और ‘नाना वाहन नाना भेष’ वाले गणों का अधिपति कहा है, शिव जन-सुलभ तथा आडम्बर विहीन वेष को ही धारण करने वाले हैं। वे ‘नीलकंठ’ कहलाते हैं। क्योंकि समुद्र मंथन के समय जब देवगण एवं असुरगण अद्भुत और बहुमूल्य रत्नों को हस्तगत करने के लिए व्याकुल थे, तब कालकूट विष के बाहर निकलने से सभी पीछे हट गए। उसे ग्रहण करने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। तब शिव ने ही उस महाविनाशक विष को अपने कंठ में धारण कर लिया। तभी से शिव नीलकंठ कहलाए। क्योंकि विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया था।